Last modified on 24 जून 2010, at 21:57

शामिल होता हूँ / मलय

मैं चाँद की तरह
रात के माथे पर
चिपका नहीं हूँ,
ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ

फटता हूँ अपने अंदर
अंकुर की उठती ललक को
महसूसता

देखने और रचने के सुख में
थरथराते पानी में
उगते सूर्य की तरह
सड़क पर निकला हूँ
पूरे आकाश पर नज़र रखे,

भाशःआ की सुबह
मेरे रोम-रोम में
हरी दूब की तरह
हज़ार-हज़ार आँखों से खुली है

ज़मीन में दबा हुआ
गीला हूँ गरम हूँ

मैं शामिल होता हूँ तुम सब में
डूबकर चलता हूँ
रचता हूँ उगता हूँ
भाषा की सुबह में।