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शायद कल! / पल्लवी मिश्रा

आईने से कब तक गुफ्तगूँ करे कोई?
पूरी होती जब एक भी नहीं
कितनी ख्वाहिश, कितनी जुस्तजूँ करे कोई?
एक-एक कर सब तन्हा छोड़कर चल दिए-
इक तूफां सा आया
सब मुँह मोड़कर चल दिए-
हद-ए-निगाह तक अब तो
वीरानी है, खामोशी है-
जाने किसकी खता है यह
जाने कौन दोषी है-
दर्द इतना है कि अब सहा जाता ही नहीं-
यूँ ही चुपचाप,
घुट-घुट कर अब रहा जाता भी नहीं-
साथ चल सकें जिसपर
ऐसा कोई रास्ता नहीं शायद!
तेरी मंजिल का
मेरी राहों से वास्ता नहीं शायद!
फिर भी कोई उम्मीद है,
कोई आस है कहीं-
दिल की गहराइयों में
यह विश्वास है कहीं-
कभी तो अन्त होगा इस कशमकश का-
कभी तो टूटेगा दरवाजा इस कफस का-
अपने जज्बातों को जब्त करने की
बन्दिश जब नहीं होगी-
अपनी किस्मत से कोई शिकवा
कोई रंजिश जब नहीं होगी-
छँट जाएगा कुहरा घना,
फट जाएँगे बादल-
छिटक जाएगी रौशनी
आज नहीं तो शायद कल!!!