संपदा त्रिलोक की न अब चाहिये मुझे,
सपूत कह के प्यार से पुकार दे ओ शारदे ।
रोम-रोम मातृ-ऋण भार से विनत-नत,
शुभ्र उत्तरीय से दुलार दे ओ शारदे ।
चेतना सदा ही रहे तेरी साधना की मातु
भावना दे, ज्ञान दे, विचार दे ओ शारदे ।
मोरपंख वाली लेखनी का कर शीश धर,
तार-तार वीणा झनकार दे ओ शारदे ।