Last modified on 20 मई 2019, at 15:54

शाश्वत / कर्मानंद आर्य

ओ मेरे नाविक
मैं कैसे भूल जाऊँ
कुछ दिनों पहले मैं
नदी थी

तुम्हारे हाव-भाव
कितने थे किशोर, और
मैं चंचल थी

आज भी मैं, कैद नहीं हूँ
ताकि, तुम छू न सको
अपलक नेह

रह-रह पीर उठती है
मैं भी,
तुम्हारे साथ-साथ बही हूँ बहुत दूर
ताकि,
खोया कल मिल सके