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शिलांग-1 / मनीष मिश्र

अल -सुबह
हरे पेड़ लेते हैं जम्हाई
चीड़ खुजलाते है बादलों की पीठ
और बादलों की उंगलियों से गिरती है बूँदे
लाल टीन की छतों पर लगातार ।

बादलों के थान समेटती,
अचानक उतर आती है तीतरी धूप-
बूढे पहाड़ो पर,
पेड़ो पर दुबके आर्किड फूलो पर,
सरसराते जेन्समों पर,
क्वाय खाती औरतों पर,
ठसाठस भरी बाजार बस पर
और गिरजे की ऊपरी बुर्ज़ पर ।

गिटार की काँपती हुयी धुन के साथ
सहमी हुई शाम
समेटती है बेतरतीब फैली दुनिया ।

मार्तण्ड की कामना में सुलगती
सुर्ख होने लगती है उभियाम झील
सूखा सन्नाटा बज़बज़ाता है सड़को पर
ऐंठने लगती है रात की कोख
जन्मने के लिए एक और चमचमाती सुबह ।



शब्दार्थ :
जेन्समों पर : एक प्रकार का नारी परिधान

क्वाय : स्थानीय पान