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शुक्रिया / महेश कुमार केशरी

आज सड़क किनारे लगे
गोलाकार लोहे की उस
जाली का देखा तो लगा,
उस लोहे की जाली
का शुक्रिया अदा
किया जाये

जिसके बीच में एक छोटा
सा पौधा, हवा का ठंँढा-ठंँढा
झोंका पाकर मुदित मन
से मुस्कुरा रहा था

शुक्रिया, उसे
बनाने वाले,
कारीगर का
भी जिसने, उस लोहे की
जाली को बनाया

शुक्रिया, उस इंसान की
सोच का जिसने, ये सोचा
की, छोटे-छोटे पौधौं
को, जानवरों और मवेशियों
से बचाने के लिए, एक लोहे की
जाली बनानी चाहिए.
जिससे हमारे, पौधे सुरक्षित
हो, पेंड़ बन सकें

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ
कि, जंँगलों और जंँगली
जानवरों को बचाने के लिए
भी सारे जंँगलों को लोहे के
सरिये
से और कंटीली तारों से घेर
देना चाहिए, ताकि, हमारे
जंँगलों
और जंँगली जीवों का जीवन
बचा रहे

वैसे, कभी-कभी मैं,
ये भी सोचता हूंँ कि पहाडों
 के चारों ओर भी लोहे की
जालियांँ लगा देनी चाहिए.।

जिससे, पहाड़ को लोग
काटना
बंद कर दें

ऐसी, जालियांँ, उन नदियों-समुद्रों
के ऊपर भी लगा देनी चाहिए.।
जिससे हमारा जल प्रदूषित होने
से बच सके।

पहली, बार, ये एहसास हुआ,
कि लोहे को पिघलाकर लोग,
बँदूकें बनाते है और कभी,
कभी कुल्हाडी और हिंसक
तलवारें भी, जिससे युगों से
कत्लेआम मचाया गया है

कितने बेगुनाहों का खून
 दर्ज है, उस लोहे पर
जिसे, पिघलाकर, नुकीले
धारदार हथियार बनाये गये

मेरा मानना है कि
लोहे से केवल जालियांँ
और बाड़ बनाये जाने
चाहिए नुकीले धारदार
और घातक हथियार नहीं