मैं देखता हूं अपनी खिड़की से
नीले आसमान के परे,
रक्तहीन सूरज जगाता है, एक पीलीया दिन को।
और रात,
जिस की आग़ोश में मदहोश थे हम
किसी तन्हा कोने में सिमट जाती है।
रेलगाड़ियां स्टेशनों पर अधभरे पेट उड़ेलती हैं,
धंसी हुई आंखें बसों में घर से द़तर जाती हैं।
पकड़ती हैं स्कूल का रस्ता, भूख संभाले भारी बस्ता,
चमचमाती हुई गाड़ियों में
मख़मली लिबास और
कलफ लगे कुरते
लड़खड़ाते हैं क्लब की ओर, आंखें मलते
कितनी ख़ूबसूरत है,
सुबह भारत की।