शैल पुत्री सरिता मैं
निर्झर बहती रहती हूँ
हर चट्टानों को
हर सीमाओं को
मैं लाँघती रहती हूँ
नगर-नगर डगर-डगर
जीवन भरती रहती हूँ
जन-जन के उर में
नव प्राण भरती रहती हूँ
जहाँ जहाँ से गुजरी मैं
वहाँ-वहाँ जन्मी सभ्यता
जहाँ जहाँ ठहरी मैं
वहाँ-वहाँ बसी मानवता
नदी हूँ चलते रहना मुझे
रूके कभी ना मेरे पांव
ढूँढ रही मैं एक किनारा
बने जो एक मेरा ठांव
यात्रा मेरी जीवन सी, मिली
अवेहलना हर्ष-दुत्कार सभी
स्त्री जीवन है ही ऐसी
हर भाव मुझे स्विकार अभी
जब जब समाज ने चाहा
धो दूँ उनके पापों का अंकुर
समझा उनको मैने,
जीवन यह नश्वर क्षणभंगुर
शैल पुत्री सरिता मैं
निर्झर बहती रहती हूँ