बालकाल! तू मुझसे ऐसी, आज बिदा क्यों लेता है
मेरे इस सुखमय जीवन को, दुःख भय से भर देता है
भूल कभी तेरे वियोग का स्मरण हाय! जो करता हूँ
सच कहता दोनों आँखों से, तप्त अश्रु जल भरता हूँ।
अन्धकार छा गया, कहीं भी दृष्टि न कोई आता है
नेत्र पटल में विभीषिका-भय, चित्र एक खिंच जाता है
काम, क्रोध, मद लोभ शत्रु पर, साथ दिखाई देते हैं
कलह, कपट, छल-छिद्र एक से, एक उठाये लेते हैं
कहाँ हृदय की शान्ति, कहाँ सुख, कहाँ वह आज हर्ष अपार
कहाँ परस्पर प्रेम, एकता, कहाँ निष्कपट सद्व्यवहार?
क्या न कभी अब इस जीवन में, पुण्य-दिवस वे मिलने के
क्या मेरे मुरझे मन मुरझे मन, प्राण न ये अब खिलने के।
बालकाल! तू चला एक मुख, लौट क्यों नहीं आता है?
तेरे बिना सखा यह तेरा, तड़प तड़प रह जाता है
जो रहता ही नहीं भला, कुछ शिक्षाएँ दे जा अनमोल
लौट एक भी बार प्रेम से, आलिंगन कर ले जी खोल।
सखे! सखे! फिर कभी और क्या, बता तुझे मैं पाऊँगा
विरह-वन्हि तापित यह अपनी, छाती और जुड़ाऊँगा
नहीं नहीं उत्तर कानों में, कहता है क्यों यह न मित्र
बची एक बस, स्मृति अब तेरी, इस दुखिया के पास पवित्र।
जा, जा सखे! गले मिल जा, जा, जा सुख से अपने धाम
कुटिल काल के कृत्य कठिन हैं, हाय विधाता की गति वाम
कर सकता कुछ नहीं, विवश हूँ, अतः अश्रु-जल-राशि समेट
देता हूँ चरणों में सादर, शोकांजलि यह तेरी भेंट।
-इन्दु, 1914