परिचय स्वयं के शब्दों में
मैं उत्तर प्रदेश के एक बहुत ही पिछड़े हुए गाँव नन्दरौली (बदायूँ) में पैदा हुआ। मेरे पूर्वज चर्मकार का काम किया करते थे। मुर्दा मवेशी उठाना, उनका चमड़ा उतारना, उसको शुद्ध करके समाज के उपयोगी बनाना, यह सब हुआ करता था। लेकिन आप देखिए कि ऐसी दुर्घटना घटी जिसने मेरे बचपन को एक संकट कालीन स्थिति में डाल दिया। मसलन, जब मैं लगभग ५-६ वर्ष का था एक दुर्घटना में मेरे पिता जी की मृत्यु हो गयी। माँ अशिक्षित थीं। मेरे बाबा का एक पैर टूट चुका था। उनके छोटे भाई नाबीना थे और मेरे ताऊ भी नेत्रहीन थे। ऐसी स्थिति में हम बेघर हो गये और उसी समय से मेरी यात्रा दूसरों के सहारे शुरु होनी थी शुरु हुई।
स्वयं की शिक्षा पर
मैं बचपन में बिना किसी प्रशिक्षण के और बिना किसी गुरु के यह कहें, किसी चिंहित किये गये प्रशिक्षक के मैं कविताएँ करने लगा था। ये कविताएँ अपने परिवेश से अपने वातावरण से, अपने अनुभव से लिखी जा रही थीं। मैं विद्यार्थी था और विद्यार्थी कैसा था कि बालश्रम के क्रम में विद्यार्थी बना था। मैं बचपन में दिल्ली आ गया था। मौसा-मौसी के पास रहकर कभी नीबू बेचकर, कभी अण्डे बेचते हुए तो कभी अखबार डालते हुए, मैंने गा-गाकर अपनी कविता शुरु की। बाहर रहकर शिक्षा ग्रहण करना, खुले वातावरण से सीखना तो मिल गया, उससे सीखते रहना और अनौपचारिक शिक्षा की तरफ बढ़ना ये सब बाल संघर्ष के दिन थे और उस समय किसी निश्चित विचारधारा में बँधकर कोई कविता करना न सम्भव था, न स्वाभाविक था। जो मन में आता था, जो अनुभव से निकलता था वह लिख लिया करता था। लेकिन जब मैं कक्षा-८ का विद्यार्थी हुआ गाँव में, दिल्ली में मेरे मौसेरे भाई जो कि मौलाना आजाद मेडीकल कालेज में एम.बी.बी.एस. के छात्र थे, उन्होंने दिल्ली के कई लेखकों से मेरा परिचय करवाया।
स्वयं के लेखन पर
उर्दू के शायरों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी मेरे दिमाग पर छाने लगे। उनके गीत जो रेडियो पर सुनने को मिलते थे वह गीत मुझे खींच कर अपनी तरफ करते गए। उनकी किताबों को मैंने दिल्ली में ढूँढ-ढूँढकर पढ़ीं। हिन्दी ने मुझे बहुत कम प्रभावित किया। कारण ये है कि उसमें गेयता बहुत कम मिलती थी और उसमें गीत बहुत कम मिलते थे तो इसलिए मेरी सरल उर्दू में लिखे गये गीतों ने मदद की और मैं गीतकार हो गया। गेय कविताएँ लिखते हुए छात्र जीवन से लोक जीवन में प्रसिद्ध होने लगा। उसी समय यानी कि छात्र जीवन से बाल सभा का अध्यक्ष रहा और उसके बाद जब चन्दौसी में ग्रेजुएशन करने आया तो आल इण्डिया स्टूडेण्ट फैडरेशन की जिला कमेटी के अध्यक्ष पद पर काम किया और उसी दौरान मिर्जापुर में एक मुशायरा हुआ जिसमें कि कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री जैसी हस्तियाँ भी थीं। मुझे एक छात्र के रूप में कविता रखने का मौका मिला। इससे पहले अपने कालेज के एक कवि सम्मेलन में एक छोटी-सी कविता सुनायी थी लेकिन उससे लगा कि बात अधिक दूर तक नहीं गयी। अखबारों में लेखन का काम छात्र जीवन से ही शुरु हुआ और पत्रिकाओं में मेरी कविता छपना शुरु हुई।
दलित आन्दोलन और संघर्ष पर
किसान आन्दोलन की यूनियन और दलित आन्दोलन में भी कार्य किया। इसी के साथ सफाई मजदूरों के लिये शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना करके वहाँ के वाल्मीकि नौजवानों को जोड़ा, कई बार ऐसी स्थितियाँ आयीं जहाँ जोखिम था। उस समय जोखिम उठा लेने के जज्बे के बारे में मैं खुद हैरान हूँ कि उस समय मैं क्या था और आज कैसा हूँ? कितना किताबी होता चला जा रहा हूँ। इसके बाद अब मेरे गीत-संग्रह नई फसल, फूलन की बारह मासी आने शुरु हुए। दलित विमर्श या दलित साहित्य ८७ के आसपास से शुरु हुआ था। इससे पहले मैं मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित था। जनवादी लेखकसंघ प्रगतिशील लेखकसंघ के असर में था और १९८७ में ही जब मैंने पी.एच.डी. का इरादा बनाया, इन्हीं धाराओं से सम्बन्धित काम के लिये सोचा था परन्तु अच्छा यह हुआ कि इस क्रम में हिन्दी दलित पत्रकारिता में पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव', इस विषय को लेकर अपना पी.एच.डी. कार्य शुरु किया और ये काम और ज्यादा सार्थक इसलिए हो पाया कि वीरेन्द्र अग्रवाल जैसे सुलझे हुए कवि मेरे निर्देशक बने। तो बुनियादी काम मैं दलित चिन्तन के संदर्भ में यह कर पाया कि मैंने बाबा साहब अम्बेडकर के मूक नायक, बहिष्कृत भारत, समता-जनता जो मराठी में निकले हुए अखबार थे, इनका करीब ५ साल तक अध्ययन और अनुवाद किया। कई किताबों में वह आया। मूर्खों जो विवाद रहेगा, यह अन्याय कोई परम्परा नहीं', दलित क्रांति का शायर इत्यादि किताबें इस क्रम में छपकर आयीं। अखबारों में लिखना शुरु किया, यह मेरे लिए एक नया क्षेत्रा था। सहारा में मेरा एक कालम चलता रहा और हिन्दुस्तान में लिख ही रहा हूँ। जनसत्ता में लिखा है, मराठी पत्रों में लिखा है और अमर उजाला में १९८७ से ही लिख रहा था। जनसत्ता, अमर उजाला के लिए कवर स्टोरी लिखी, आवरण कथा लिखी और फिर धीरे-धीरे मैं आलोचना के फील्ड में उतर गया, कविता मेरी छूटती गयी इसका मुझे दुख हुआ।
आत्मकथा और डायरी-लेखन
इस वर्ष तीन बहुत महत्वपूर्ण आत्मकथाएं आयी हैं- श्यौराज सिंह बेचैन की मेरा बचपन मेरे कंधों पर , मराठी और हिंदी के कई प्रतिष्ठित (दलित??) साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथाएं लिखी हैं। श्योराज सिंह बेचैन की आत्मकथा इसी क्रम में अपना महत्वपूर्ण स्थान अर्जित करती है। श्यौराज सिंह बेचैन ने जिस रूप में अपने शैशव की स्थितियों का प्रमाणिक अंकन किया है वे हमारे समाज की समाजार्थिक संरचना और उसके विकास का दस्तावेजी, आंखिन देखी सच चित्रण है।