सवैया
सोई है रास मैं नैसुक नाच कै नाच नचायौ कितौ सबकों जिन।
सोई है री रसखानि किते मनुहारिन सूँघे चितौत न हो छिन।।
तौ मैं धौं कौन मनोहर भाव बिलोकि भयौ बस हाहा करी तिन।
औसर ऐसौ मिलै न मिलै फिर लगर मोड़ो कनौड़ौ करै छिन।।211।।
तौ पहिराइ गई चुरिया तिहिं को घर बादरी जाय भरै री।
वा रसखान कों ऐतौ अधीन कैं मान करै चलि जाहि परै री।।
आबन कों पुततीत हठा करैं नैंननि धारि अखंड ढरैरी।
हाथ निहारि निहारि लला मनिहारिन की मनुहारि करै री।।212।।
मेरी सुनौ मति आइ अली उहाँ जौनी गली हरि गावत है।
हरि है बिलोकति प्राननि कों पुनि गाढ़ परें घर आवत है।।
उन तान की तान तनी ब्रज मैं रसखानि समान सिखावत है।
तकि पाय घरौं रपटाय नहीं वह चारो सो डारि फँदावत है।।213।।
काहे कूँ जाति जसोमति के गृह पोच भली घर हूँ तो रई ही।
मानुष को डसिबौ अपुनो हँसिबौ यह बात उहाँ न नई ही।।
बैरिनि तौ दृग-कोरनि में रसखान जो बात भई न भई ही।
माखन सौ मन लैं यह क्यों वह माखनचोर के ओर नई ही।।214।।
हेरति बारहीं यार उसै तुव बाबरी बाल, कहा धौ करैगी।
जौं कबहूँ रसखानि लखै फिर क्यों हूँ न बीर ही धीर धरैगी।
मानि ऐ काहू की कानि नहीं, जब रूपी ठगी हति रंग ढरैगी।
यातैं कहौं सिख मानि भटू यह हेरनि तेरे ही पैड़े परैगी।।215।।
बाँके कटाक्ष चितैबो सिख्यौ बहुधा बरज्यौ हित कै हितकारी।
तू अपने ढंग की रसखानि सिखावनि देति न हौं पचिहारी।
कौन की सीख सिखीं सजनी अजहूँ तजि दै बलि जाउँ तिहारी।
नंद के नंदन के फंद अजूँ परि जैहै अनोखी निहारिनिहारी।।216।।
बैरिन तूँ बरजी न रहै अबही घर बाहिर बैरु बढ़ैगौ।
टौना सुनंद छुटोना पढ़ै सजनी तुहि देखि बिसेषि पढ़ैगौ।।
हँसि है सखि गोकुल गाँव सतै रसखानि तबै यह लोक रढ़ैगौ।
बैरु चढ़ै धरहिं रहि बैठि अटा न एढ़ै बघनाम चढ़ैगौ।।217।।
गोरस गाँव ही मैं बिचिबो तचिबौ नहीं नंद-मुखानल झारन।
गैल गहें चलियै रसखानि तौ पाप बिना डरियै किहि कारन।।
नाहि री ना भटू, क्यों करि कै बन पैठत पाइवी लाज सम्हारन।
कुंजनि नंदकुमार बसै तहाँ मार बसै कचनार की डारन।।218।।
बार ही गोरस बेंचि री आजु तू माइ के मूढ़ चढ़ै कत मौंड़ी।
आवत जात ही होइगी साँझ भटू जमुना मतरौंड लौ औंड़ी।
पार गए रसखानि कहै अँखियाँ कहूँ होहिंगी प्रेम कनौड़ी।
राधे बलाइ ल्लौं जाइगी बाज अबै ब्रजराज सनेह की डौंड़ी।।219।।
कवित्त
ब्याहीं अनब्याहीं ब्रज माहीं सब चाही तासौं,
दूनी सकुचाहीं दीठि परै न जुन्हैया की।
नेकु मुसकानि रसखानि को बिलोकति ही,
चेरी होति एक बार कुंजनि दिखैया की।
मेरो कह्यौ मानि अंत मेरो गुन मानिहै री,
प्रात खात जात न सकात सोहैं मैया की।
माई की अटंक तौ लौं सासु की हटक जौ लौं,
देखी ना लटक मेरे दूलह कन्हैया की।।220।।
सवैया
मो हित तो हित है रसखान छपाकर जानहिं जान अजानहिं।
सोच चबाव चल्यौ चहुँधा चलि री चलि रीखत रोहि निदानहिं।
जो चहियै लहियै भरि चाहि हिये उहियै हित काज कहा नहिं।
जान दे सास रिसान दै नंदहिं पानि दे मोहि तू कान दै तानहिं।।221।।
तेरी गलीन मैं जा दिन ते निकसे मन मोहन गोधन गावत।
ये ब्रज लोग सो कौन सी बात चलाइ कै जो नहिं नैन चलावत।
वे रसखानि जो रीझहैं नेकु तौ रीझि कै क्यों न बनाइ रिझावत।
बावरी जौ पै कलंक लग्यौ तो निसंक है क्यौं नहीं अंक लगावत।।222।।
जाहु न कोऊ सखी जमुना जल रोके खड़ो मग नंद को लाला।
नैन नचाइ चलाइ चितै रसखानि चलावत प्रेम को भाला।
मैं जु गई हुती बैरन बाहर मेरी करी गति टूटि गौ माला।
होरी भई कै हरी भए लाल कै लाल गुलाल पगी ब्रजमाला।।223।।
सोरठा
अरी अनोखी बाम, तू आई गौने नई।
बाहर धरसि न पाय, है छलिया तुव ताक मैं।।224।।