कल मैं कह रही थी
और तुम कह रहे थे
फिर हम दोनों मान भी रहे थे कि
रिश्ते नहीं होते
बनिये की दुकान में रखे
सामान की तरह
जहाँ से उनका
मौल-भाव किया जा सके
पर क्या सच में ऐसा होता है?
क्या वाकई रिश्ते
बनिये की दुकान में रखे
सामान की तरह नहीं हो गए हैं
जहाँ एक बार
उनको अपने लिए
इस्तेमाल करने की चाह उठती है और
हमारा दिल-दिमाग और हाथ
मचलने लगते हैं उन्हे
बार-बार देखने, परखने और सूंघने को
उन पर अपनी पूरी उर्जा
उड़ेलने को
तुम मानो या ना मानो
मैं अब मान चुकी हूं
कि वाकई रिश्ते होते हैं
बनिए की दुकान की तरह
वे आज नहीं तो कल
बिक ही जायेंगे
यही सच है
स्वीकार करो, स्वीकार करो!