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सच में / निरुपमा सिन्हा

बहुत दूर तक खोजती आँखों को
जब नहीं मिले तुम
तब बहुत तेज़ खिलखिला कर हँसी थी
मैं!!
जैसे पहली बार
साइकिल चलाते वक्त
जब कैरियर पकड़े पकड़े
पापा ने हाथ छोड़ दिया
बस एक बार देखा था मुड़ कर
और खिलखिलाकर हँस पड़ी थी
... .मैं!!
फिर
चल पड़ी थी उन राहों पर जहाँ तक
पापा की नज़र नहीं सोच भी जाती थी!!

पहली बार मेले में फ़ेरिस ह्वील पर
बैठे हुए
अचानक रुक जाना
उसका
आसमां के करीब
आ गई थी कुछ खराबी
उसके पुर्जों के
हाथ पकड़ सहेली का,
खिलखिला कर हँस पड़ी थी
मैं!!
अब उड़ती हूँ ... जहाजों पर अपने सपनों की उड़ान से बादलों के साथ!!
पहली बार
समन्दर के किनारे किनारे
मोटरबोट पर बैठी हुई
अचानक लहरों के ऊपर निकल जाने से
खिलखिला कर हँस पड़ी थी
मैं!!
अब नाप लेती हूँ... गहरे से गहरे इंसान को आँखों की गहराई से!!
लेकिन सच तो यह था कि
जब जब खिलखिला कर हँसी थी वो वास्तव में में बहुत डरी थी... मैं!!