Last modified on 10 फ़रवरी 2011, at 20:54

सत्य / दिनेश कुमार शुक्ल

निर्मल जल की झील पर, ज्यों जलकुम्भी बेल।
त्यों यथार्थ पर पसरता, है भाषा का खेल।।

बाइस्कोपी जगत-सा, प्रतिपल बदले रंग।
आधुनिकोत्तर सत्य का, गिरगिट जैसा ढंग।।

शाश्वत जो लगता अभी, लगता अभी अनित्य।
अभी अभी पाखण्ड था, अभी परम वह सत्य।।

सत्य बालुका, सत्य जल, सत्य नदी की धार।
सत्य कभी इस पार है, सत्य कभी उस पार।।

सत्य चोर की सेंध है, सत्य साधु का टाट।
सत्य झूठ की निठुरता, सत्य सत्य की बाट।।

टपकी खबर अकास ते, बिन खटकाये द्वार।
छत से कूदे आँगना, जैसे चोर बिलार।।

जीवन को अर्था रहा गूँगा बहरा मौन।
किसने देखा राम को रमता जोगी कौन।।

मुँह में भर कर रेत-सा, वाक्यहीन वक्तव्य।
शीर्षासन करता खड़ा, मेरे युग का सत्य।।

हर दलील से बे-असर, ज्यों हाकिम का तर्क।
जब तक डण्डा हाथ में, क्या पड़ता है फर्क।।

मार झपट्टा चील-सा, लेता रोटी छीन।
शासक के इस तर्क से, जनता उत्तरहीन।।