जा दिन संत पाहुने आवत ।
तीरथ कोटि सनान करैं फल जैसी दरसन पावत ।
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै चरन-कमल चित-लावत ।
मन बच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत ।
मिथ्या बाद उपाधि-रहित ह्वैं, बिमल-बिमल जस गावत ।
बंधन कर्म जे पहिले, सोऊ काटि बहावत ।
सँगति रहैं साधु की अनुदिन, भव-दुख दूरि नसावत ।
सूरदास संगति करि तिनकी, जे हरि-सुरति कहावत ॥1॥