{01}
तू मेरा नाम न पुछा कर भीड़ का हिस्सा,भीड़ में ना मालूम सा चेहरा हूँ मैं, ज़िन्दगी के हजारों रंग है , हर रंग की ताबीर हूँ मैं, कभी आओ फुर्सत से तो इनमे से हर रंग से मिलना कभी मुहब्बत से... कभी यूँ भी आ.....न पुछा कर ...................गोपाल नारायण सिंह...................
{02}
जिंदगी के हर लम्हों में तेरी ज़रूरत सी लगती है,
तेरे लबों पे मेरा नाम आएगा,अभी तो आश आखरी है
मैं ये कहता हूं किसी सूरत से, दिल लगाना सीख लो
एक कशीश है तुमको पाने की, जो बाधे से नही बधती
कितना रोते हैं, कब लौट कर आएगी,ये काम आखरी है
कौन कहता है ख्वाहिशें बदल गयी,बस ये शाम आखरी है
...................गोपाल नारायण सिंह...................
{03}
मौसम,क्या कुछ बदल गया हूँ मैं आज कुछ अपने से लगते हो तुम, तालाब या बहती नदी के बीच धार, सुस्मित हर्षित बादल से कह्दो कि, उम्मीद सम्मानों में,गम अपमानों में, बूंदों को थामना मेरी आंखो से सीखे, अगर कुछ अपने से लगते है, बादल प्यार दे, यूँ मुखरित बादल से कह्दो ! इनके भी कुछ सपने टूटे से लगते है. ...........गोपाल नारायण सिंह.......
{04}
चाहता हूँ देश की धरती,
तुझे कुछ और भी दूँ।
वास्तव में क्या ?
बिजली नहीं है,पानी भी नहीं,
चाहिए रोटी,प्याज और हरी मिर्च
‘पीपली लाइव’ फिल्म देखी या नहीं.
उसके गांव में टीवी भी नहीं है.
जीवन की वास्तविकताओं को दर्पण दूँ।
2 जी स्पेक्ट्रम, CWG चप्पल, राडिया टेप,
आदर्श भूमि घोटाला,एक दूर की कौड़ी है,
'इलाहाबाद कोर्ट में सड़ा कुछ' सैलेड
नैतिक और अनैतिक के बीच खो गया अंतर
क्या दूँ ? वास्तव में क्या ?
सर्व करने से पहले, प्लेट निकाल लें।
देहात,सड़ांध मिक्सी में पीसकर गर्मागर्म परोसें?
भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यर्थ हो जाता सुधार,परोसें?
समाज का कोई खंडनैतिक लंगर, क्या दूँ ?
चाहता हूँ देश की धरती,
तुझे कुछ और भी दूँ।
वास्तव में क्या ?
...........गोपाल नारायण सिंह.......
{05}
पीतवर्णी कुसमाकर ज्योंहि अपने बसंती रंग के औदार्य से पूरित, मादक पुष्प-वितान के मध्य अनुभूतिपूर्ण आहट देता है, तत्क्षण ही आरम्भ हो जाती है समष्टि की बसंती रंग में रंगने की प्रक्रिया और प्रसरित वासंतिक सुषमा के साथ ही दिखायी देती है चहुं ओर नवीनता। आखिर क्या है आकर्षण इस बसंती रंग में? ..............गोपाल नारायण सिंह.......
{06}
एगो चुम्मा दिहले जाना हो करेजऊ, कोयलिया ना बोल,समय अजब है, नींद की कोख में है, हिन्दुस्तान, हलचल से कसमसाकर जाग जाए ना, ढाई अक्षर,मंदिर,बगीची,उसकी हँसी, लगन,स्वप्न,कुछ भी क़ायम नही है पूर्वजों के गाँव, खेल-तमाशा बदल जाना .. और कुछ का,वैसा के वैसा ही रह जाना--- बस क़ायम,मैं हूँ,मैं.. परछाइयों की..दिल्ली एक मुट्ठी स्वप्न---पल पल बदलता रहता हूँ मैं, कोयलिया ना बोल,वाहे वाहे,अलविदा ... दस्तूर यही दिलरुबा,…मौन रहना, दिल्ली--तेरे बिना जिया जाए ना... क्यों साहेब,खबर किस से कहें ? चलो, दिल्ली में ही सेटल हो जायें... ...........गोपाल नारायण सिंह.......