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सपना / अखिलेश श्रीवास्तव

मैंने दुखों का समन्दर पैरों से लांघकर नहीं
सर के बल चलकर पार किया है
हरियाली धरती पर लोटने का मन था
पर रेत फैली है दूर तक
हँसता भी हूँ तो
बालू चबाता हूँ!

समन्दर के सफर में
जल दैत्यों से लड़ा
कुछ मछलियों से दोस्ती की
सिर को तराश कर नुकीला बनाया
जिस हिस्से में मेरे सपने रहते थे
उन्हें छील कर जल प्रवाहित कर दिया!
जिन पैरों को पंख बनना था
मैंने उन्हें पूंछ बना लिया!

इस नुकीले सर को लिए-लिए
जब सुनता हूँ कि ऊंट की तरह लम्बी गर्दन चाहिये
रेगिस्तान को पार करने के लिये
तो बचे-खुचे सपने फिर उठाता हूँ
उसी की बनाता हूँ रस्सी

एक सपने की रस्सी के फंदे पर
दूसरे सपने की गर्दन लुढ़क जाती है
तीसरे सपने की जीभ बाहर निकल आई है

 हर सपने की मौत के बाद
मेरी आँखें अब इक रेत का टीला हैं
चढ़कर देखो तो दूर रेगिस्तान में
एक झरना दिखाई पड़ता है!
आ से आंख
आंख माने सपना!