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समय (6) / मधुप मोहता


समय एक अनवरत सीढ़ी है,
जो वहां से प्रारंभ होती है, जहां से आदमी
चढ़कर आकाश छूना चाहता है।
समय धरातल का क्षितिज में विलय है।
समय आलोक का तिमिर से अभिसार है,
समय ही प्रलय है।
समय समग्र है, ध्रुव है,
सुदूर नीहारिकाओं में विचरती उल्काओं
का अंतरिक्ष में अट्टहास है समय।
क्षणभंगुर महत्वकांक्षाओं का
उपहास है समय।
समय ही सेठ है, समय ही सट्टा है।
समय ने बड़े-बड़े बाज़ार बेचे हैं,
समय ही सोना है, समय ही सूद है,
समय ही सुदामा।

कितने सगरमाथा समय ने समतल किए हैं।
कितने सागरों को गागरों में भरा है,
कितनी स्मृतियो को कितनी सतहों
में सहेजा है।

समय सामंजस्य है,
कितने मंतव्य समय में समन्वित हैं।
समय ही मन को तन में संजोता है,
मंतव्य समय में ही तन्मय होते हैं।
समय एक समीकरण है।
समय ने कितनी जातियों, उपजातियों को
एकीकृत किया है।
समय एक संप्रदाय हैं
कितने मत, कितने मठ, कितने मंहत,
समय के संगम में ग़ोता लगा रहे हैं।
कितने वर्ण, कितने आश्रम, कितनी व्यवस्थाएं
समय के यज्ञ में समिधा दे रहे हैं।
राजनिति के धरातल पर, समय ही संतुलन है।
समय ही क्षीरसागर है, समय ही शेषनाग
समय ही शरशय्या है।

समय का शिखंडी मेरी
प्रतिक्षा में है,
रूको मत सारथी, आगे बढ़ो।