समय आग का कुण्ड; दहकती भू क्या, ऊपर नभ है
फटी हुई छाती पर्वत की, और नदी है रेत
अमराई के बीच पड़ी है कोयल गिरी अचेत
गंगा के भी नीचे साँसों का तपता सौरभ है ।
खेतों में चिनगारी की फसलें हैं पकी-पकी अब
जाने कब पछिया बह जाए चिनगारी को छू कर
गाँव, गाँव, खलिहान, मवेशी जल जाए धू-धू कर
सचमुच में क्या नहीं आयेगी पुरबा थकी-थकी, अब !
बिल्ली की आँखों-सी रातें, डरा हुआ चम्पा है
केशर के शर कुन्द पड़े हैं, क्या शिरीष कुछ बोले
इसका भी अवकाश नहीं है, पाटल मन को खोले
किसने क्या शबरी को कह दिया, व्याकुल यूं पम्पा है ।
रेतों का मटमैला बादल प्रेत बना उड़ता है
इस हलचल और कोलाहल में कैसी यह जड़ता है !