Last modified on 24 नवम्बर 2018, at 18:54

सम्बन्धीजन / विजयशंकर चतुर्वेदी

मेरी आँखें हैं माँ जैसी
हाथ पिता जैसे
चेहरा-मोहरा मिलता होगा ज़रूर
कुटुम्ब के किसी आदमी से ।

हो सकता है मिलता हो दुनिया के पहले आदमी से
मेरे उठने-बैठने का ढंग
बोलने-बतियाने में हो उन्हीं में से किसी एक का रंग
बहुत सम्भव है मैं होऊँ उनका अंश
जिन्होंने देखे हों दुनिया को सुन्दर बनाने के सपने
क्या पता गुफ़ाओं से पहले-पहल निकलने वाले रहे हों मेरे अपने
या फिर पुरखे रहे हों जगद्गुरू शिल्पी
गढ़ गए हों दुनिया भर के मन्दिरों में मूर्तियाँ
उकेर गए हों भित्ति-चित्र
कौन जाने कोई पुरखा मुझ तक पहुँचा रहा हो ऋचाएँ
और धुन रहा हो सिर ।

निश्चित ही मैं सुरक्षित बीज हूँ सदियों से दबा धरती में
सुनता आया हूँ सिर पर गड़गड़ाते हल
और लड़ाकू विमानों का गर्जन

यह समय है मेरे उगने का
मैं उगूँगा और दुनिया को धरती के क़िस्सों से भर दूँगा
मैं उनका वंशज हूँ जिन्होनें चराई भेड़ें
और लहलहा दिए मैदान

सम्भव है कि हमलावर मेरे कोई लगते हों
कोई धागा जुड़ता दिख सकता है आक्रान्ताओं से
पर मैं हाथ तक नहीं लगाऊँगा चीज़ों को नष्ट करने के लिए
भस्म करने की निगाह से नहीं देखूँगा कुछ भी
मेरी आँखें माँ जैसी हैं
हाथ पिता जैसे ।