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सहयात्रा / चंद्रदेव यादव

सुबह-सबेरे
कतकी नहाइल हवा
तन-मन के सुहरावेले
सूरज के राग में रँगल
ओस क बूँद
कुस के नोक पर थरथराले
कोमलता भले ही
कठोरता से डेराले, बाकी
सुन्दरता कठोरता के मुँह बिरावेले l

सुरुज उगतै
छलांग मार के लइकी
चढ़ जाले छितिज के छरदेवाली पर
रेत से रोसनी गार के कहेले
नींद से जब आधी दुनिया जागेले
पसुता दम दबा के भागेले l
पहर दिन चढ़ले
सइकिल पर सवार किसोरी
पैडिल पर जब
हुमच के लात मारेले

त पीछे छूट जाले
सदियन क कुल झिझक
लोकलाज आउर सरम
उन्मुक्त मन
निकल के सुतुही से
असमान में नाचेला
फरहरा के नाईं फहरत दुपट्टा
निर्बन्ध होक उल्लास क गीत गावेला
रूप पौरुस के धूप के
कइ देला ठंढा
फेर कउनो तबीज अ गंडा
काम न आवेला,
जब आधी दुनिया
चल पड़ेले निधड़क
अनजाने भभिस्य की ओर
अदृस्य आकार ले लेला;

सच में
हौसला जब बुलंद हो जाला
रास्ता खुद ब खुद बन जाला l
' मर्द औरत के
जिनगी भर संरच्छन देला'
स्मृति क ई आप्त बानी
आज हो गइल ह बेमानी,
औरत के अपने ढंग से जीये दा
ओकरे हिस्से क बिख भा अमरित
ओके पीए दा,

अपनी अहंता के त्याग के सोचीं त
साफै बुझाला
कठोरता कोमलता क
रच्छक ना सहयात्री ह,
कोमलता कठोरता क धात्री ह l
नेह के आँच से
मस्का पिघल जाला
ढेर सख्ती से जम के
तन जाला l