इततें राधा जाति जमुन-तट, उततैं हरि आवत घर कौं ।
कटि काछनी, वेष नटवर कौ, बीच मिली मुरलीधर कौं ॥
चितै रही मुख-इंदु मनोहर, वा छबि पर वारति तन कौं ।
दूरहु तै देखत ही जाने, प्राननाथ सुंदर घन कौं ॥
रोम पुलक, गदगद बानी कही, कहाँ जात चोरे मन कौं ।
सूरदास-प्रभु चोरन सीखे, माखन तैं चित-बित-धन कौं ॥1॥
भुजा पकरि ठाढ़े हरि कीन्हे ।
बाँह मरोरि जाहुगे कैसै, मै, तुम नीकैं चीन्है ॥
माखन-चोरी करत रहे तुम, अब भए मन के चोर ।
सुनत रही मन चोरत हैं हरि, प्रगट लियौ मन मोर ॥
ऐसे ढीठ भए तुम डोलत, निदरे ब्रज की नारि ।
सूर स्याम मोहूँ निदरौगे, देहुँ प्रेम की गारि ॥2॥
यह बल केतिक जादौ राइ ।
तुम जु तमकि कै मो अबला सौं, चले बाँह छुटकाइ ॥
कहियत हो अति चतुर सकल अंग, आवत बहुत उपाइ ।
तौ जानौं जौ अब एकौ छन, सकौ हृदय तैं जाइ ॥
सूरदास स्वामी श्रीपति कौं, भावति अंतर भाइ ।
सहि न सके रति-बचन, उलटि हँसि लीन्ही कंठ लगाइ ॥3॥
कुल की लाज अकाज कियौ ।
तुम बिन स्याम सुहात नहीं कछु, कहा करौं अति जरत हियौ ॥
आपु गुप्त करि राखी मोकौं, मैं आयसु सिर मानि लियौ ।
देह-गेह-सुधि रहति बिसारे, तुम तैं हितु नहिं और बियौ ॥
अब मोकौं चरननि तर राखौ, हँसि नँदनंदन अंग छियौ ।
सूर स्याम श्रीमुख की बानी, तुम पैं प्यारी बसत जियौ ॥4॥
मातु पिता अति त्रास दिखावत।
भ्राता मोहिं मारन कौं घिरवै, देखैं मोहिं न भावत ।
जननी कहति बड़े की बेटी, तोकौं लाज न आवति ॥
पिता कहे कैसी कुल उपजी, मनहीं मन रिस पावति ॥
भगिनी देख देति मोहिं गारी, काहैं कुलहिं लजावति ।
सूरदास-प्रभु सौं यह कहि-कहि, अपनी बिपति जनावति ॥5॥
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन ।
विमुख जननि की संगति कौ दुख, कब धौं करिहौ मोचन ॥
भवन मोहिं भाठी सौ लागत, मरति सोचहीं सोचन ।
ऐसी गति मेरी तुम आगैं, करत कहा जिय दोचन ॥
धिक वै मातु-पिता, धिक भ्राता, देत रहत मोहिं खोंचन ॥
सूर स्याम मन तुमहिं लगान्यौ, हरद-चून-रँग-रोचन ॥6॥
कुल की कानि कहा लगि करिहौं ।
तुम आगैं मैं कहौं जु साँची, अब काहू नहिं डरिहौं ॥
लोग कुटुंब जग के जे कहियत, पेला सबहिं निदरिहौं ।
अब यह दुख सहि जात न मोपैं, बिमुख बचन सुनि मरिहौं ॥
आप सुखी तौ सब नीके हैं, उनके सुख कह सरिहौं ।
सूरदास प्रभु चतुरसिरोमनि , अबकै हौं कछु लरिहौं ॥7॥
प्राननाथ हो मेरी सुरति किन करौ ।
मैं जु दुख पावति हौं, दीनदयाल, कृपा करौ, मेरौ कामदंद-दुख औ बिरह हरौ ॥
तुम बहु रमनी रमन सो तो जानति हौं, याही के जु धौखैं हौ मौसौं कहैं लरो ।
सूरदास-स्वामी तुम हौ अंतरजामी सुनी मनसा बाचा मैं ध्यान तुम्हरौई धरौं ॥8॥
हौं या माया ही लागी तुम कत तोरत ।
मेरौ तौ जिय तिहारे चरनि ही मैं लाग्यौ, धीरज क्यौं रहै रावरे मुख मोरत ॥
कोऊ लै बनाइ बातैं, मिलवति तुम आगैं, सोई किन आइ मोसौं अब है जोरत ।
सूरदास-पिय, मेरे तौ तुमहिं हो जु जिय, तुम बिनु देखैं मेरौ हियौ ककोरत ॥9॥
बिहँसि राधा कृष्न अंक लीन्ही ॥
अधर सौं अधर जुरि, नैन सौं नैन मिलि हृदय सौं हृदय लगि, हरष कीन्ही ॥
कंठ भुज-भुज जोरि, उछंग लीन्ही नारि, भुवन-दुख टारि, सुख दियौ भारी ।
हरषि बोले स्याम, कुञ्ज-बन-घन-घाम, तहाँ हम तुम संग मिलैं प्यारी ।
जाहु गृह परम धन, हमहुँ जैहैं सदन, आइ कहुँ पास मोहिं सैन दैही ।
सूर यह भाव दै, तुरतहीं गवन करि, कुंज-गृह सदन तुम जाइ रैहौ ॥10॥