वे कितनी सहृदय बीमारियाँ थीं
जिनमें कुशल क्षेम जानने, दुख दर्द पूछने
आते रहे दोस्त, पड़ोसी और रिश्तेदार घर।
मरीज़ का हाथ अपने हाथ में लेकर
देते रहे दिलासा "कुछ नहीं होगा तुम्हे" का
सुझाते रहे कोई नुस्खा, व्यायाम या पथ्य
बड़ी समझाइशों के साथ।
आते समय लाते फल और जूस के डिब्बे
किताबे या कोई पुराने गीतों की कैसेट
उन्हें वापस करने की नसीहत भी कितनी
मीठी और आत्मीय होती थी।
दलिया खिचड़ी और मूंग की दाल से भरे
उन बर्तनों में कैसी दयावान सुगंध हुआ करती थी
और यह सदाशय इसरार भी कि बताओ
कल क्या खाओगे।
कोरोना की इस बीमारी से जूझते हुए
आदमी बस उस आत्मीय स्पर्श को तरसता है
जो अब सम्बन्धों से बिला गया है।
अकेले कमरे में लेटे हुए सोचता है कि
बीमारियाँ तो पहले भी थीं
पर इतनी क्रूर कब थीं।
आदमी और आदमी के बीच
इतना बेहिस फ़ासला कब था!