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साँसें और सपने / रणजीत

देवदत्त भाई ! चाहो तो
मेरी साँसों के सीने में कोई शस्त्र भोंक दो
लेकिन मेरे
व्योम-विहारी
सपनों के कोमल हंसों को
तीर मार कर नहीं गिराओ ।

साँसों पर ज़िन्दा हूँ लेकिन
साँसों का विस्फार सपन में ही संभव है
धरती है आधार, मगर विस्तार गगन में ही संभव है
क्योंकि ज़िन्दगी
साँसों की सपनों के साथ सगाई
धरती और गगन का गठबन्धन है !

सपन न छीनो
गगन न छीनो
मुझसे मेरी
बढ़ने की, चढ़ने की लगन न छीनो
भले बाँध लो ज़ंजीरों से मुझको लेकिन
मेरे पंख-सधे आदर्शों की उड़ान में
सीमाएँ बन कर मत आओ !

देवदत्त भाई, चाहो तो
मेरी साँसों के सीने में कोई शस्त्र भोंक दो
लेकिन मेरे व्योम-विहारी सपनों के कोमल हंसों को
तीर मार कर नहीं गिराओ !