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सागर-मंथन / कविता भट्ट

                                                                                                     
देवत्व का वही करुण क्रंदन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

कोई खींचता उधर,
कोई खींचता इधर।
मथनी थी फिर नई,
रस्सी भी फिर धरी।
सच्चाई रो पड़ी- मान मर्दन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

विष हँसके पी गया,
जाने कैसे जी गया।
मन शिव मेरा हुआ,
अहं ने भी ना छुआ।
किंतु ना जाने क्यों ये बंधन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

किए जतन बहुत,
निकले रतन बहुत।
मुख पर किसी क्या,
मन में न जाने क्या।
कुटिल बड़े वे जिनका वंदन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

राहु का भाल था,
वह क्रूर काल था।
क्यों गर्व हो गया,
लोकपर्व हो गया।
सोम छिन्न-भिन्न अवैध आबंटन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

वह मद में चूर था,
नीति से भी दूर था।
मुस्कान कटु लिए,
घूँट-घूँट मधु पिए।
सिंहासन सजा और चंदन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

तब शीश कटा था,
अब है मुकुट धरा।
मेरा मन ठना रहा,
और वह बना रहा।
कुंद यों विष्णु का क्यों सुदर्शन हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

यह है अनीति भी,
घोर अनाचार भी।
क्या तेरा न्याय है,
और अभिप्राय है।
राहु-केतु से चंद्र क्यों ग्रहण हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।

निष्काम सा करम,
नीलकंठ का भरम।
अब तो कायर हुआ,
हाय! जर्जर हुआ।
जो भी उचित था उसका तर्पण हुआ।
सागर में फिर वही तरुण मंथन हुआ।
-0- (13-10-2022)