उसे नहीं जो सरसाता है
स्वाति-बूँद, जो हरसाता है
सागर-तट की सीपी की, तल पर ला सरसाता है।
ताकि सहज मुक्ता वह दे दे-सीपी सोती।
नहीं! साधुवाद उस को जो कहीं अनवरत
भर कौशल से हाथ अनमने
निर्मम बल से एक-एक सीपी का मुख खोला करता है
और मर्म में रख देता है कनी रेत की, एक अनी-सी
कसके जो, पर रक्खे अक्षत, मिले दर्द से जिस के कर से
सीपी का उर जिस के वर से
रच ले मोती!
दिल्ली, 1 मई, 1956