जीवन ऐसे ही चलता है, रफ़्ता-रफ़्ता
अपनी राह बनाता। कभी चढ़ाता ख़ुद को
ही सर, कभी समय की सख़्त शिला से
सर टकराता, कण-कण तोड़, अगम पथों को
सरल बनाता। ख़ुद हो जाता रेती-रेती
पर लहरों संग फिरता धाता, नाद उठाता
सा-रे-गा से सप्तम स्वर तक · · ·
प्राण सुखाकर गीत बनाता, फिर-फिर गाता।
अगर कभी, मिलती ढलान जो, भागता सरपट
प्रखर वेग से, तेज चलाता गति की, मति की
अपनी ही औकात बताता, कि हहास जो
बांध रहा वह, है उसका ही अर्जित यश-बल
जनम अकारण नहीं किया है उसने अपना
ऐसा कह मन ही मन खुद को, भरमाता जाता।