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सावन / साधना सिन्हा

सावन बन थामो मुझको
मैं
बरसूँ चारो ओर
मेघ बनो
लो आगोश,
रोऊँ मैं
घनघोर

सपनों की
हरियाली बन
खेतों में
लहराऊँ
पवन के झोंकों संग
उस छोर पहुँच जाऊँ

बरसूँ
निर्जन वन में
पंछी गाएँ।
ठंडी धूप में
देखूँ उनको
पंख फैलाये
लौटूँ
फिर अपने घर-आंगन ।

ठहरो :
चलो, ले चलो-
रेत समन्दर
निर्जल-निर्मिति रेत–लहर

फिर तो मैं मिट जाऊंगी
तुमसे न मिल पाऊंगी
अनस्तित्व के सूने जग में
अस्तित्व एक बनाऊंगी ।