खुदी के ताप में पकता
धीरे-धीरे सिन्दूरी आँच
हो आता है चिनार
जलाती हुई नहीं
मेरी आत्मा में धँसी
कसक को
सेंकती-सी आँच मद्धम।
लो, यह तुम क्यों
सिन्दूरी हुई जाती हो !
(1985)
खुदी के ताप में पकता
धीरे-धीरे सिन्दूरी आँच
हो आता है चिनार
जलाती हुई नहीं
मेरी आत्मा में धँसी
कसक को
सेंकती-सी आँच मद्धम।
लो, यह तुम क्यों
सिन्दूरी हुई जाती हो !
(1985)