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सिरजण / राजेन्द्र शर्मा 'मुसाफिर'

अणमोल हुय सकै
घणमोल हुय सकै
थांरी कविता
थूं कूड़ नीं लिखै
कूड़ बोलै ई नीं है
मनगत नैं उकीरै
भावां रै स्हारै
सबदां री करै जादूगरी
चतर खिलाड़ है थूं।

पण थूं तौ
भोग्या-अणभोग्या
मूंहघा मोत्यां सूं
धवळा पानां नै
सिणगारै ई है।

इण सिरजण री
साख कुण भरै-
अेकली मिनख जूण !

म्हैं करूं सिरजण
मन री तिरस साथै
तन री कलम
पसेव री स्याही सूं
बिडरूप-सी जमीं माथै
करूं लीकोरड़ा
उकीरूं नूवां चितराम
रंग भरै सांवरियौ
सांपड़तै रचै रास
मोरियो-मोरणी
कानूड़ो-राधा।

इण सिरजण री
साख भरै-
आखी मिनख जूण
जीव-जिनावर
आभै सूं सूरजी।

पडूत्तर दीज्यौ
सिरजण कुणसौ ?