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सीप-छवि / विजेन्द्र

 
अन्त की ललौंही लहक में
छिपी हे सीप-छवि
कितनी तरंग-मालाएँ चली गईं
उसे छोड़ कर निर्जन तट पर
दिक् एक स्थिति है
एक बंदिश
एक सूरत
मेरे अंकुरित हो कर उगने की

दिन की खिली पँखुड़ी ने
मुझे जगाया बरौनियों पै छू कर
गुड़हल के फूल की छवि से जाना
पूरा खिलने को चाहिए निरभ्र-समय
सुने हैं मैंने फुँफकारते सागर तट पर
लहरों के विषधर
चट्टानी तटों पर छूटा पड़ा
अँधेरे का टूटा जाल

डर का ठण्डा पत्थर हुआ है और सख्त
ऋतुएँ जो छोड़ आईं पीछे अपनी परछाएँ
वह मेरा अतीत नहीं
वह भरा है असंख्य निष्कंप रुदन से
उनके थके-हारे गान से
इस टहनी से उड़ कर अभी अभी जो पिण्डुक
गई है घने झुरमुट में
छोड़ गई है धूप के बीज उगने को

संगीत की मंजरियाँ गमकती हैं
अँधेरे कोनों में
कितना गहरा है नासूर
उसकी पीड़ा की गहनतम आँच
संशय का जहर खाता है
मेरे शतदल को

ओह कैसे भूल पाऊँगा
देखा जो अरुणोदय अरावली के पीछे
रक्त परिधान पहनने को आतुर !

(दिसम्बर, 2012, जयपुर)