सुख!
कभी था-
एक भाव/एक तृप्ति/एक आनन्द/एक अहसास
परन्तु ऐसा कोई सुख
दृष्टिगोचर नहीं है
आज अपने आसपास।
रुपया, पैसा, बंगाला, गाड़ी
और न जाने क्या-क्या...
बन गए हैं
सुखों के नए मापदण्ड,
और
हमारे मनीषियों की अवधारणाएँ
हो गई हैं खण्ड-खण्ड।
भौतिक साधनों की समृद्धि को;
धन-दौलत की वृद्धि को
अज्ञानतावश
वही सुख मान रहे हैं-
जो आत्मानन्द की अनुभूति से
अब तक अनजान रहे हैं
हाँ-
लेशमात्र सुख का आभास
उन्हें हुआ है-
जिन्होंने वीणा के तारों को झंकृत किया है;
या फिर रंगों को तूलिका से
कैनवास पर चित्रित किया है;
कभी जिसने रोते हुए बच्चे को हँसाया है,
या शब्दों की अमृतधारा से
कोरे कागज को नहलाया है।