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सुगबुगाहट / विजेन्द्र अनिल

भाषा और व्याकरण के जंगल में
सागर की उद्दाम लहरों को मत बाँधो
मत बाँधों झरनों के कलकल निनाद
पंछियों के कलरव और बच्चों की
दूधिया मुस्कानों को पुश्तैनी ज़ंजीरों से

हरे-भरे पेड़ों को काटकर
ज़मीन को समतल बनाने की
हर कोशिश एक छलावा है
प्रकृति से
इससे
वहशी टीलों और
उन पर उगी कँटीली झाड़ियों को
कोई नुक़सान नहीं

बहुत हुआ
अब बन्द करो अपना मसीहाई अन्दाज़
बन्द करो आदमखोर टीलों और
ख़ूनी मीनारों
की आड़ में बैठकर करना
गौरैयों का शिकार

आख़िर कब तक चलेगा
बन्दर-बाँट का नाटक
और नक़ली बहसों का दौर
बहस को ज़मीन पर खड़ा करो
सिर के बल नहीं
पाँव के बल

गन्धाती आवाज़ों को
कविता का अलंकार मत बनाओ
मत बैठाओ
क़त्ल की मुखौटाधारी
कोशिशों को
न्याय की कुर्सी पर

वक़्त की आवाज़ सुनो
मुल्क की धड़कनें तेज़ हो रही हैं
खण्डहर सुगबुगा रहे हैं।

ज़िन्दा कौमें कभी भाषा के जंगल में
क़ैद नहीं होतीं
गर्म लहू कहीं भी गिरे
अपना रंग लाकर रहेगा
इसे जहाँ-तहाँ मत बहाओ
मत बुलाओ हरे-भरे मैदानों में
रेगिस्तानी आँधी।