सुधि करो कहा था, ”जहाँ चरण रखती पंकज खिल जाते हैं।
हो जाती है दिशि धवल अधर के दल जब जब हिल जाते हैं।
वैसे तो देखे हैं हमने सुन्दरि! संसृति के सारे सुख।
पर करता सबका तिरस्कार तेरा परिरंभण, तेरा मुख।
करती मेरा पथ-अन्वेषण नित उझक झरोखे झाँक गयी।
तुमको वसुन्धरा चूम-चूम मुदिता मघवा-धनु आँक गयी”।
अब बैठ अकेले हिचक रही बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥133॥