सुखऱ् गुलाबों जैसे आज कनेर खिले हैं।
इनका कोई मौसम,
मौका महल नहीं है।
सबके सब संकर हो बैठे
इनमें कोई असल नहीं है;
अर्द्ध सभ्य गुल मेंहदी, गुलतर्रा के जैसे-
आबादी के बाहर-भीतर खिले-मिले हैं।
बड़े-बड़ों के रहे चहेते
मुद्दत पहले,
शहंशाह हो बैठे
कल के नहले-दहले;
इनकी अब औक़ात-हैसियत पूछ रहे क्यों?
रजवाड़े अपने-अपने मजबूत किले हैं।
अब कनेर हो गए,
कभी ये कर्णिकार थे,
वर्णव्यवस्था में ऊँचे-
होते शुमार थे।
करना था विद्रोह मगर क्योंकर ये चुप हैं?
घटिया सुविधाओं के मारे ओठ सिले हैं।