सब डरते हैं
अँधेरी गुफ़ाओं से
सूखे नयनों से
इक्कीसवीं सदी का जुमला है
हँसो तो सब साथ देते हैं
रोना अकेले ही पड़ता है
कौने बैठे !
बैठा ही रहे
आसमान में छिपे तारे की तरह
टकटकी लगाकर निहारता
अपने ब्रह्माण्ड को
कौन बनकर हवा
सरसरा दे
निचाट अकेलेपन को
यह इस अकेलेपन की
अपनी ही बयानबाज़ी है
जहाँ सब कुछ गुम है
सिवाय इस आस के
कि कभी कहीं कोई तो गाएगा...
चलो दिलदार चलो
चाँद के पार चलो।