समय के बीतने के साथ
कितने भी हो चुको निरपेक्ष
वृत्तियों को साध कर
स्वयं को कर लिया हो
किसी भी सीमा तक वीतराग
उतार-चढ़ावों ने थका-उबा कर
तुम्हें बना दिया हो
आंसुओं और मुस्कराहटों से
कितना भी उदासीन
किसी ढीठ बच्चे की तरह
अपनी बात मनवा ही लेता है वह
खोज ही लेता है कोई चोर-रास्ता
तुम तक पहुंचने का
होने का कोई न कोई
बहाना ढूंढ ही लेता है
दुराग्रही दुख