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सॉनेट / प्रभाकर माचवे

मैंने जितना नारी, तुमको याद किया है, प्यार दिया है,
तुमने भी क्या कभी भूल से सोचा था कैसा है यह मनु ?
मैंने क्या अपराध किया जो तुमने यों इसरार किया है
जाने कैसे विद्युत्कर्षण से परसित है तन-मन-अणु-अणु ।

तुम मेरे मानस की संगिनि, चपल विहंगिनि, नीड़ कि शाखा ?
तुम मेरे मन की राका की एकमात्र नक्षत्र-विशाखा;
तुम हो मृगा या कि आर्द्रा हो? नहीं, रोहिणी, तुम अनुराधा,
तुम छायापथ, ज्योति-शिखा तुम, तुम उल्का, आलोक-शलाका,

संशय के सघनांधकार में विद्युन्माला अयि अचुम्बिते !
तुम हरिणी, मालिनी, शिखरिणी, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बिते
तुम छन्दों की आदि-प्रेरणा, प्रथम श्लोक की पृथुल वेदना,
तुम स्रग्धरा या कि मंदाक्रांता, ओ आर्या, गीति स्तंभिते !

मैं गतिहारा यति-सा ग्रह से शून्य प्रभाकर, मैं वैनायक
तुम रागिनी और मैं गायक, तुम हो प्रत्यंचा मैं सायक !