तुम्हें याद है वो चट्टान
जिस पर बैठ कर
हम चाय पिया करते थे
तुम्हारे इस सवाल से
मेंरे पैर काँपने लगते है
जैसे ऊँचाई से गिरने का डर
मेंरे वजूद पर हावी हो जाता है
तुम मुझे भूल गईं न?
एक पल की डबडबाई ख़ामोशी में
लहरों में देखती हूँ
टूटते सूरज को
कई बार छुपा लेते हैं हम उदासी
और दर्द को घोल देते हैं
दूसरे केमिकल में
झील अचानक सिकुड़ जाती है
एक लड़का दौड़ने लगता है
गिलहरी के पीछे
पकड़ना चाहता है उसे
समय के रेगिस्तान में
खो जाते हैं कई दृश्य
कुछ चीज़ें
एहसास के बाहर ऐसे बदलती हैं
कि हमें पता ही नहीं चलता
सारे दवाबों के बीच ’मैं’
उससे पूछती हूँ अब स्टेशन चलें
नहीं तो तुम्हारी ट्रेन छूट जाएगी।