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सौरमण्डल / स्वरांगी साने

सहती रहो
माँ ने कहा था।
सहती जाओगी तो धारित्री कहलाओगी दादी ने कहा।
फिर वो भी
कभी बही सरिता बन
कभी पहाड़ हो गई
कभी किसी अंकुर की माँ हो गई
पर मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला।

एक स्त्री से अन्य तक
पहुँची यही बात
सब अपनी-अपनी जगह
होती चली गई जड़वत्
बनती चली गई धरती जैसी।

हर धरती के आसपास रहा कोई चाँद
तपिश भी देता रहा कोई सूरज
तब से पूरा का पूरा
सौरमण्डल साथ लिए घूमने लगी है स्त्री ।