प्रश्नों की अमरबेल जैसी
जिसकी जड़ नहीं मिलती
किसी दम्भ या सहिष्णुता की बात नहीं
बात है इतनी कि
देह से परे इंसान समझने की
कायदा हर बात का जरुरी है
पुरुषोचित हो या स्त्रियोचित
औचित्य है
अधिकार और सम्मान का बराबर
मातृसत्ता का इतिहास देखना होगा
पितृसत्ता के तन में फैला विष समझना होगा
परस्पर दोषारोपण हल नहीं देगा
मुझे नहीं मालूम है कि कब कैसे क्या बदलेगा
किन्तु सब अपने हिस्से का प्रश्न पूछना सीखिए
उत्तर भी आएंगे
चुप्पियाँ दु:साहस का हिम्मत बढाती हैं!
अखबार रोज शर्मसार करता है मुझे।