हरि-रस तौंऽब जाई कहुँ लहियै ।
गऐं सोच आऐँ नहिं आनँद, ऐसौ मारग गहियै ।
कोमल बचन, दीनता सब सौं, सदा आनँदित रहियै ।
बाद बिवाद हर्ष-आतुरता, इतौ द्वँद जिय सहियै ।
ऐसी जो आवै या मन मैं, तौ सुख कहँ लौं कहियै ।
अष्ट सिद्दि;नवनिधि, सूरज प्रभु, पहुँचै जो कछु चहियै ॥1॥
जौ लौं मन-कामना न छूटै ।
तौ कहा जोग-जज्ञ-व्रत कीन्हैं, बिनु कन तुस कौं कूटै ।
कहा सनान कियैं तीरथ के, अंग भस्म जट जूटै ?
कहा पुरान जु पढ़ैं अठारह, ऊर्ध्व धूम के घूँटे ।
जग सोभा की सकल बड़ाई इनतैं कछू न खूटै ॥2॥