Last modified on 26 दिसम्बर 2011, at 12:49

स्नेहमयी / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

है ‘घन’-आवरण पलक में,
पुतली में नील ‘गगन’ है,
इन आषाढ़ी आँखों में,
अंतर का स्नेह सघन है।
मादकता गहन उदधि की,
निर्झर की मुक्त विमलता,
फूलों की सरल हँसी बन
खिलता तुझ में यौवन है।
हिमगिरि के धवल शिखर-सी
तेरे उर की उज्ज्वलता
अविरल ममता बन-बन कर
पिघला करती प्रति-क्षण है।
हे कण-कण के अंतर-तर-
के सप्त-स्वरों की रानी!
तेरी ही स्वरलहरी पर
लहराता यह त्रिभुवन है।
इस विश्व-विहग ने तेरे
प्राणों में नीड़ बनाया,
प्रतिदिन थककर संध्या को
करता यह वहीं शयन है।
तू बड़े प्यार से इस पर
निविड़ांचल फैला देती,
फिर पास खींच अकुलाकर
कर लेती आलिंगन है।