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स्मृति / दिनेश कुमार शुक्ल

दुख की चौखट पर
वह खड़ी थी अकेली
सारे संसार को
आत्मसात करती हुई

समय फैला रहा था
सूखने के लिये
धूप के मीलों लम्बे थान
और हिरन की तरह विस्फारित आँखों से
उसे देख रही थी हवा
उड़ने-उड़ने को तैयार

वह चाहती तो
हाथ बढ़ाकर खींच लेती
समुद्र की लहरें
और पहन लेती उन्हें
हार की तरह

उसके भीतर बसे थे
कितने संसार
किन्तु वह बेहद अकेली थी
सूर्य की तरह पूरे आकाश में

प्राचीन नगरों की
गलियों से होकर
आ रही थीं स्मृतियाँ,
पवित्र नदियों के
टूट-टूट कर
गिर रहे थे कगार,
नदियाँ रास्ता बदलने
जा रही थीं
और
वह खड़ी थी अकेली
पृथ्वी पर
टिका कर दोनों पैर

वह खड़ी थी
अपनी पाली खेल कर
बीते समय की तरह
वह खड़ी थी दर्शकदीर्घा में

बिल्कुल सूनी थी
दर्शकदीर्घा
बिल्कुल सूना था रंगमंच,
ढेर सारी चीजों के
बिखरे थे भग्नावशेष,
युगों से खड़े-खड़े थककर
अब लेट गई थीं चट्टानें
और लेट गये थे पहाड़

उसकी आँखें खोज रही थीं
दृश्य जगत के परे,
किसी अकल्पनीय
संसार के क्षितिज को
टटोल रही थी उसकी दृष्टि-
धरती के क्षितिज को
जैसे टटोलती है
उषा की उंगलियाँ

उन आँखों की
सजलता में
साँस ले रही थी
पाताल की गहराई
उन आँखों के समुद्र में
कौतुकी मछलियाँ
खेल रही थीं
जीवन-मृत्यु और
मत्स्यन्याय के खेल,

और वहाँ प्रतीक्षारत
लटके थे प्रश्नचिन्ह बनकर
समुद्र के सबसे जहरीले सर्प

उन आँखों में
दुपहर सी प्रौढ़ और
आम के फल सी मांसल
इच्छायें
अब सो रही थीं
सर्पों की सेज पर

किन्तु वहाँ स्मृति के
समुद्र में
तैर रही थी किसी की कमीज
और दिख रहे थे जल से बाहर
निकले दो हाथ
जिनसे छूट गई थी अभी-अभी
जीवन की डोर

वह धधक रही थी
इतिहास के भयंकरतम
अग्निकांड-सी

पानी के बुलबुले जैसी
उड़ी चली जा रही थी पृथ्वी
उसकी सांसों की आँधी में।