पाण्डुलिपि बिछा कर मैं — दीये की रोशनी में —
बैठा हूँ चुपचाप,
गिरती है पत्तों पर ओस
कुहरे में पक्षी कौन उड़ा अभी
नीम की डाल से — गया दूर कुहरे में ।
उसके ही उड़ने से, शायद, है बुझा दिया ।
माचिस अन्धेरे में, ढूँढ़ता टटोल कर...
रुकता हूँ क्षण भर मैं,
जलने पर दिया अभी, चेहरा मैं
देखूँगा, कौन-सा ?
कौन-सा ? देखा था एक दिन जिसे शायद,
एक नज़र, आँवले की शाखों से तिरछी
घुमावदार सींगों के रूप में
नीले-से चाँद ने
देख सकी थी उसको, इसी तरह, एक दिन
मेरी यह पाण्डुलिपि...पुरानी...भी ।
चेहरा वह, भूल गई है लेकिन पृथ्वी अब !
फिर भी ये बुझ जाएँगी सारी रोशनियाँ जब,
कोई नहीं होगा, होगा बस, सपना मनुष्य का,
होगा वह चेहरा... मैं होऊँगा सपने के भीतर उस !
(यह कविता ’महापृथिवी’ संग्रह से)