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स्वप्न / विमल राजस्थानी

वातायन से चन्द्र-ज्योत्सना डरी-डरी सी झाँके
झाीने घन-टुकड़ो की ओट लिये शशि मुड़-मुड़ ताके
यह सदेह सौन्द्रर्य आज किस मधु चिन्तन में रत है
पहले जैसा नहीं आज यह गिरा-गिरा है, श्लथ है
चमके-दमके पहले जैसी रे! पुनः लौट आयी है
दीन्ति मुखराबिंद पर पहले फिर छायी है
धरे तर्तनी पर किंशुक-सी चिबुक, नयन मूँदे है
लगती है प्रसन्न पर मन के घाव अभी ऊदे हैं
उठी कलाई से रस-कलशदाहिना दबा हुआ है
अब भी सुलग रही अन्तर ज्वाला, उठ रहा धुआँ है
रात स्वप्न आया वासव को जैसा कभी न आया
पूरा स्वप्न अभी तक स्मृति में है धुमड़ा, छाया
चन्द्र किरण के झूले पर हम दोनो झूल रहे है
बाँहो में भर, गुँथे परस्पर, सुध-बुध भूल रहे है
बड़े प्यार से उसने मुझका दुलराया औ‘ चूमा
मेरा मन ऐसा न कभी जीवन में थिरका, झूमा
रस भीगे अधरों पर मेरे अधर धर दिये ऐसे
लाल गुलाब चूम लेता हो बिम्बाफल का जैसे
साँसे चार तप्त घुल-मिल कर एकाकार हुई हैं
मधुरालिंगन की मधूलिका मदनाधार हुई है
सप्त लोक का सुख समेट कर स्वर्ग उतर आया है
नहीं किसी नारी ने अब तक ऐसा सुख पाया है
फिर हम दोनो बैठ हंस-पंखो पर, नन्दन वन मंें-
उतरे, कल्पवृक्ष के नीचे,बैठ गये कानन में
सुन रक्खा था-मनोरथों का तरु अमोघ दाता है
पा जाता अमरत्व मनुज, आता न कभी जाताहै
माँग लिया अमरत्व, प्यार माँगा अनन्त अम्बर-सा
लगा कि जैसे जीवन ही जीवन दोनो पर बरसा
तभी खुल गयी आँख, जोर से बोला कहीं पपीहा
कहाँ, पी कहाँ-कह, डालो पर डालो कहीं पपीहा
घड़ी दो घड़ी बाद शान्त जब हुई फली फुलवारी
कहाँ, पी कहाँ-कह बलने की आयी मेरी बारी
ओह, प्राण प्रिय की बाँहो पर अब भी झूल रहे हैं
अब भी अधर अधर-रस की धारा में बहे-बहे हैं
अब भी गूँज रही वंशी-ध्वनि, रास चल रहा अब भी
मुझको मन मोहन के मन का हास छल रहा अब भी
अहा! स्वप्न क्यों लिया छीन,ओ निठुर पपीहे! बोलो
क्यों किया मीन को वारि-हीन, ओ निठुर पपीहे! बोलो
क्यों दी उजाड़ दुनियाँ रँगीन, ओ निठुर पपीहे! बोलो