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स्वप्न और यथार्थ के मध्य चहलकदमी / निधि अग्रवाल

सपने उदार होते हैं,
आप देख रहे होते हैं
नीला मेघाच्छादित आकाश,
फूलों की वादी,
सुन रहे होते हैं रवीन्द्र संगीत।
पास ही मोगरा की झाड़ी से
भागती आती है गिलहरी,
आपकी हथेली पर बैठ जाती है।
आप गिलहरी को काँधे पर बिठा लेते हैं,
गिलहरी माँ का हाथ बन जाती है।
कुछ थपथपाहट के बाद
सुनते हैं आप गिलहरी को कहते-
उठ जाओ,चाय ठंडी हो रही है!
उनींदी आँखों से देखते हो आप
गिलहरी को माँ में तब्दील होते।

हक़ीक़त जाने क्यों
इस कदर नकचढ़ी है,
उसे नहीं भाता यूँ
सपनों का एनक्रोचमेंट
अन्यथा कैसा सुखद होता,
दैन्य में लिपटे पलों में
हक़ीक़त का पलक झपका
स्वप्न हो जाना!
सेमल के नर्म बिछौने पर
पलकों को मूँद,
सुख की प्रतीक्षा में
व्यवधान रहित नींद सो जाना।