तँत्रबुद्धि का हेकड़ जलवा
भावुकता के स्वांग ।
खोज रहे मरुथल में झरना
सब औराँगउटाँग ।
बाहर उजले,भीतर काले
भव्य लगें दहिजार ओढ़कर
जनहित के नाम के दुशाले
दृष्टि-भाव जैसे मण्डी की चीज़ हुए हों
मूत रहे हैं कुत्ते सारे
उठा-उठा कर टाँग ।
मसले वही पुराने, बासी
हित-अनहित सब अपने-अपने
अपनी-अपनी मथुरा-काशी
सीधी चाल साँप की होती या अज़गर की
बहुपारश्वों से देख रहा
आलोचन ऊटपटाँग ।
बारिश बिना टाट-गुदड़ी की
बिना तेल के जले कढ़ाही
उन्हें पड़ी गीली पगड़ी की
शोध-तमाशे में है रोटी, मची तबाही
चारण-चौकीदार महल के
छान रहे हैं भांग ।