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स्वाती दर्शन / सरोज कुमार

कागज तो ऐसा चौराहा है
जहाँ कलम से, किसने
क्या-क्या नहीं चाहा है!

पर कविता फरमाइशी लेखन नहीं है
और अगर है भी
तो सिर्फ मेरा!

जैसा मुझे दिखा,
वैसा मैंने लिखा!
जैसा मुझे सुझा,
वैसा मैंने बुझा!

स्वाति के बादल को
क्या फर्क पड़ता है-
बूँद सीपी में गिरे
या गटर में!

व्यवस्था की ज़िम्मेदारी म्युनिसिपैलिटी की है!

मुझसे जब टकराई हकीकतें
मैंने उन्हें शब्दों में गा दिया!

अब मेरे शब्दों को दुहरा कर
चाहे वेश्याएँ
पटाएँ अपने ग्राहक
चाहे देवांगनाएँ रिझाएँ
अपने प्रप्रभु को!