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स्वीकार नहीं / उर्मिल सत्यभूषण

मुझ पर प्रहार अब और नहीं
औरत पर मार अब और नहीं
ये अत्याचार अब औरनहीं
ये हाहाकार अब और नहीं
औरत एक कीमियागर है
जो नित दर्द को दवा बनाती है
जख्मों पर मरहम लगाती है
अनुलेप स्वयं बन जाती है
उस पर दर्दों की मार पड़े
स्वीकार नहीं स्वीकार नहीं
वह ग़म को पीती-खाती है
पी-पी कर ज़हर पचाती है
फिर अमृत में ढल जाती है
अमृत जग में बरसाती है
उस अमृत में कोई ज़हर भरे
स्वीकार नहीं स्वीकार नहीं
धरती बनकर सब सहती है
कितना कितना वह दहती है
तप-तप कर कुंदन बनती है
संजीवनी सरिता बहती है
कोई दुःख के अंगार भरे
स्वीकार नहीं स्वीकार नहीं
फूलों जैसी को शूल मिले
उसको न प्यार के कूल मिले
जिसने जीवन के रंग भरे
उसको बेरंगी धूल मिले
वह गर्दों गुबार से नित गुज़रे
स्वीकार नहीं स्वीकार नहीं
वह शोषण की ही कथा रही
नित घुटी-घुटी सी व्यथा रही
भीतर लावा है उबल रहा
ये धूम रेखायें बता रहीं
वह इस धूम का पान करे
स्वीकार नहीं, स्वीकार नहीं
आज़ाद हवायें डोलेंगी
गंूगी आवाजे़ं बोलेंगी
कितनी जंजीरे टूटेंगी
खिड़की दरवाजे खोलेंगी
अब कोई अत्याचार करे,
स्वीकार नहीं
स्वीकार नहीं
वो जीवन पर्व मनायेगी।
वो सारे रंग अपनायेगी
खिलखिल गुंचे खिल जायेंगे
वो खुले गले से गायेगी
मेरे निर्णय कोई और करें
स्वीकार नहीं, स्वीकार नहीं।